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Writer's pictureAnurag Sharma

खिलखिलाता बचपन !

मां मैं अब सुधर गया हूँ,

अब तो फ्रिज से कुल्फी निकाल कर दे दो,

या ले आओ वो रूह अफज़ा की बोतल,

कड़ी धूप में बाहर जाने की ज़िद भी मैं अब न करूँगा,

पापा से कह दो आफिस से आते हुए गुलाब जामुन ले आना,

और शाम को साईकिल में हवा भरवाने भी तो जाना है,

माँ, मैं अब सुधर गया हूँ, पर शायद तुमसे थोड़ा बिछड़ गया हूँ ।

सुना है उस मोड़ पर तरबूज़ वाला इन गर्मियों में फिर से लौट आया है,

और इस बार के मेले में एक नया खिलौना सबको खूब भाया है,

वो पांच रुपए की खोये वाली कुल्फी अब पन्द्रह की हो गयी है,

भारी तो है जेब पर, पर उस पर लगे खोये का स्वाद वही है ।

माँ मैं सुधर गया हूँ, पर तुमसे थोड़ा बिछड़ सा गया हूँ।

याद है बचपन मे मैं लुक्का छिप्पी खेला करता था,

अब यह हर रोज़ की आदत हो गयी है ।

रंग बिरंगे गुब्बारे जो मुझको बहुत भाते थे,

वो जलेबी जो पापा हर शाम लाते थे,

वो फिर से तुम ले आना माँ या पापा से कह देना,

दो छुटियां इक्कठी की है मैंने,

शायद इस बार घर आऊंगा,

तुम बस फ्रिज में कुल्फी जमा देना,

मैं हर बार की तरह बस एक नहीं खाऊंगा,

दो छुटियां इक्कठी की है मैंने,

शायद इस बार घर आऊंगा ।


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