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कसौली के किस्से!

Updated: Mar 11, 2023

जब पहली बार नौकरी के लिए घर से निकला, दिल में कई सवाल थे, बेबुनियाद से और कुछ सहमे से। लगभग कुछ चार बसों को बदलकर मैं पहुंचा था, धर्मपुर। धर्मपुर, सोलन से सटा हुआ एक छोटा सा कस्बा है, शायद रस्किन बॉन्ड की कहानियों में यह नाम सुना होगा।

अनजान शहर था, धूल बहुत थी, शायद तरक्की पर था शहर।

जनाब, यह कसौली के लिए बस कहां से मिलेगी?, एक दुकानदार से पूछा।

"बस यहीं से मिलेगी, आखिरी बस आने वाली है थोड़ी देर में"

नयापन तो था, पर एक डर सा भी था। मैने अपने कंधे पर रखे बैग को थोड़ा ढीला किया, हाथ वाला बैग जमीन पर रखा, और घुल मिल गया धर्मपुर की धूल मिट्टी से।

सामने एक छोटी सी पहाड़ी दिखाई दे रही थी और उस पर अनगिनत घरों से आ रही रोशनी भी। वर्षा शालिका की दीवार का सहारा लेकर मैं उसे निहारता रहा, शाम की ठंड भी होने लगी थी।

अंधेरा होने ही वाला था की, एक बस आकर रुक गई। बस का कंडक्टर जोर जोर से गडखल...कसौली...चिल्लाने लगा। एक लंबी सांस भर कर मैं उसमें जा बैठा।

बस कुछ खाली खाली सी थी, बिल्कुल मेरे मन जैसी और शायद बेमन जैसी। हां मुझे दुख था घर से दूर आने का, क्या यह शहर अपना पाएगा मुझे? क्या यहां के रास्तों पर मैं अकेला तो नहीं रह जाऊंगा? आंखें नम थी, कसौली की आखिरी बस थी, कदम उस बस से उतरना चाहते थे, नहीं जाना चाहते थे वो नए शहर में। पीछे से किसी का बैग ज़ोर से टकराया, तो हकीकत में आ पहुंचा। धूल, आंसू और खाली खाली सा मन, मेरा मतलब खाली खाली सी बस धीरे धीरे चलने लगी।

कितना किराया है कसौली का? साथ बैठी एक लड़की जिसका नाम मीनाक्षी था, उससे यह जानने की कोशिश की।

10, उसने सिर्फ इतना ही कहा। शायद वो भी नहीं जाना चाहती थी कसौली।

10 रुपए सुन कर मैं अनुमान लगाने लगा कसौली की दूरी का, गाने सुनने लगा, रास्ते में पड़ने वाले हर होटल को निहारता हुआ कुछ आधे घंटे में में कसौली पहुंचा।

बस से उतरा तो मीनाक्षी भी उतरी, जिस तरफ मैं चला उस तरफ वो भी चल पड़ी। थोड़ी दूर एक चर्च के पास हमारा रास्ता अलग हो गया ।

वो बाजार वाले रास्ते की ओर चली गई, जिस रास्ते मुझे जाना नहीं था।

मेरा रास्ता दूसरी ओर था, घने जंगल से पैदल होता हुआ एक गेस्ट हाउस का ठंडा बिस्तर और अकेलापन मेरा इंतजार कर रहा था।

बहुत ठंड थी, पर मैं रोया बहुत जोर से। घर की याद आई, मां की, पापा की और भाई की। कुछ पल आराम किया, कुछ खुद को समझाया, और घर पर फोन कर "सब ठीक है" की तसल्ली दी।

खाना बनाने वाला चौकीदार आज नहीं आया है, खाना बाजार जा कर खाना पड़ेगा, यह कहकर चौकीदार वहां से चला गया।

कोहरे के बीच, मैं पैदल बाज़ार की ओर चला। कसौली का जितना नाम सुना था, उतना बड़ा बाज़ार नहीं था। चंद दुकानें, गिन कर बारह। उनमें से दो जिन में खाना मिलता था। बहुत सोचने की आदत तो थी ही, लेकिन उस ठंड में विचारों से लड़ता या भूख से?

जाकर बैठा, खाने को दाल और रोटी मंगाई और बोतल वाला पानी। मीनाक्षी भी शायद इसी ओर आई थी।

इस से गंदा खाना मैने कभी नहीं खाया था, और उस पल मुझे लगा मैं इस शहर में ज़्यादा दिन नहीं रह पाऊंगा।

घर से लेकर कसौली तक का सफर थकान भरा था, कुछ वैसी ही थकान दिल में भी थी। कसौली एक शहर न होकर बस एक कस्बा भर था, इस बात से दिल बोहोत हताश था। सपनो में जो रोज घर देखता था, वैसा शायद यहां नहीं मिल पाएगा, और यह शहर...मेरा मतलब कस्बा...शायद मुझे नहीं अपना पाएगा।

यह सोच कर उस अंग्रेजों के ज़माने की गेस्ट हाउस में कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला।

लेकिन एक चीज़ जो उस कस्बे ने मुझे दी, वो था तुजुर्बा...जिंदगी जीने का, कहानियां लिखने का...आखिरकार रस्किन बॉन्ड और खुशवंत सिंह का घर जो यहां था। और हां, एक दोस्त भी मिला वहां, मीनाक्षी, वह इत्तेफ़ाक से साथ ही काम करती थी। वो ऑफिस का हिस्सा हो गई और इस किस्से का किस्सा हो गई।


फिर मिलेंगे अगली कहानी में, ठंड बहुत है, अपना ख्याल रखिएगा ।

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